जिस प्रकार से विद्यार्थियों का अपने गुरुओं-शिक्षकों के प्रति शिष्टाचार का कर्तव्य है, उसी प्रकार शिक्षकों का भी अपने विद्यार्थियों के प्रति कर्तव्य है। शिक्षकों को अपने विद्यार्थियों- शिष्यों का ध्यान उसी प्रकार से रखना चाहिए जिस प्रकार वे अपने बच्चों का रखते हैं।
हमारे देश में सदियों से जो परंपरा रही है उसमें राजा-महाराजा आदि के पुत्र आश्रम में ऋषि-मुनियों के साथ रहते थे। आश्रम में ही वे सभी कार्य करते थे और जब तक शिक्षा में निष्णात् नहीं हो जाते थे तब तक वहीं गुरु के साथ रहते थे।
राजा-महाराजा आदि अपने बाल पुत्रों को ऋषि- मुनियों के आश्रम में क्यों भेज देते थे? क्या उनके यहाँ कुछ कमी थी? नहीं, वे उन्हें इसलिए भेजते थे, क्योंकि वे जानते थे कि गुरु का स्थान माता-पिता से ऊँचा होता है और जिस गुरु के पास वे अपने पुत्रों को शिक्षा के लिए भेज रहे हैं, वे उनसे अधिक उन्हें शिक्षित कर सकते हैं। आज स्थितियाँ अलग हैं- आश्रम नहीं हैं, छात्रावास आदि हैं; लेकिन क्या वहाँ उचित शिक्षा मिल पाती है? यह विचारणीय यक्ष प्रश्न है।